Freitag, 6. Juni 2014

बेचारा मर्द

मां के गर्भ से निकलने के बाद से ही
वह परेशान है
छूट चुका है
उसका बसेरा
जहां उंकड़ू मारकर
घर जैसा महसूस किया जा सके
अब हाथ-पैर फैलाने हैं
धरती-आसमान-समंदर
हर कहीं बनाने हैं बसेरे
डाह भरी नज़रों से
वह देखता है औरत को
उसे बसेरे नहीं बनाने हैं -
बसेरा बनना है !

Mittwoch, 4. Juni 2014

और उनका लेख छप गया !

लोग उन्हें आमतौर पर पापाजी कहते थे. अपनी आख़िरी घड़ी तक वह हिंदी पत्रकारिता के जगत में परिवार द्वारा स्थापित मानकों की रक्षा करते रहे. पठन-पाठन, पूजा-पाठ और अपने स्तर व दायरे में सामाजिकता ही उनकी दिनचर्या के मुख्य अंग थे. पत्रकारों की स्वतंत्रता के वे हिमायती थे, व संकट की स्थिति के अलावा वे अपने स्थानीय होते राष्ट्रीय अखबार के मामलों में कोई ख़ास हस्तक्षेप नहीं करते थे. उनका मानना था कि उनके लिये काम करने वाले विश्वस्त लोग होने चाहिये, जिन पर आंख मूदकर भरोसा किया जा सके. उन्हें देखने से लगता था कि उन्हें शिकार का शौक होना चाहिये. पता नहीं, उन्हें यह शौक था या नहीं, लेकिन गुस्से में आने पर वे हमेशा बंदूक लाने का हुक़्म देते थे. लोग पापाजी के गुस्से को आसपास के लोग गंभीरता से लेते थे, लेकिन बंदूक लाने के हुक़्म को नहीं.
कोलोन और बॉन में स्वतंत्र पत्रकार मेरे पूर्व सहकर्मी अरोड़ा जी भी कलकत्ता के एक अभिजात परिवार के हैं. हिप्पी आंदोलन, अध्यापन, दिनमान में पत्रकारिता और फिर अपनी जर्मन पत्नी या जन्मजात यायावर प्रवृत्ति के कारण जर्मन प्रवास के चलते वे स्वतंत्र पत्रकार बन चुके थे, जिनका काम दरअसल जर्मन लेखों का हिंदी में अनुवाद करना रह गया था. ‚भगवान‘ रजनीश कभी उनके अध्यापक सहकर्मी हुआ करते थे, और हमारे अरोड़ा जी उनके विचारों से अत्यंत प्रभावित थे और कहीं भी अखबारों में रजनीश से संबंधित कोई टिप्पणी मिल जाती तो उसे वे संजोकर अपने पास रख लेते थे.
बहरहाल, अमरीकी राष्ट्रपति कार्टर जर्मनी आये हुए थे, और अरोड़ा जी उनकी यात्रा पर लिखी गई एक समीक्षा का अनुवाद कर रहे थे. समीक्षा उन्हें पसंद नहीं आई, लेकिन यह कोई नई बात नहीं थी. लेकिन पता नहीं क्या हुआ, इस नापसंदगी की वजह से उनकी सृजनात्मक सत्ता फिर से जाग उठी, और उन्होंने तय किया कि वे खुद भारत के किसी अखबार के लिये एक लेख लिखेंगे. उनकी पुरानी पत्रिका दिनमान शायद अब भी निकल रही थी, लेकिन रघुवीर सहाय की मत के बाद पत्रिका के साथ अरोड़ा जी के कोई संपर्क नहीं रह गये थे. खैर, लेख तो उन्होंने लिख ही डाला, और उसके बाद रजनीश से संबंधित कटिंग्स छानते हुए वे किसी अखबार का पता ढूंढने लगे. वहां उन्हें किसी खबर के पन्ने के नीचे पापाजी के अखबार का पता दिख गया और उन्होंने उस पते पर अपना लेख भेज दिया.
तीन हफ़्ते बाद संपादक का पत्र आया, जिसमें कहा गया था कि लेख उन्हें बहुत पसंद आया है और वे उसे छापना चाहते हैं. संपादक जी के नाम से ही ज्ञान की महिमा प्रकाशित हो रही थी, हालांकि वह एक छद्मनाम सा लगता था. पत्र में इस सिलसिले में अरोड़ा जी से पूछा गया था. कि क्या वह लेख के लिये पारिश्रमिक लेने को तैयार हैं ?
अरोड़ा जी पत्र पाकर बेहद ख़ुश हुए. फिरती डाक से अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए उन्होंने सूचित किया कि वह पारिश्रमिक लेने को भी तैयार हैं.
तीन हफ़्ते बाद संपादक का अगला पत्र आया, जिसमें कहा गया था कि उनके अखबार में लेख के लिये पारिश्रमिक की राशि अरोड़ा जी के जर्मन प्रवास के मद्देनज़र अत्यंत कम होती है. क्या वह पारिश्रमिक की तुच्छ राशि भी स्वीकार करने के लिये तैयार हैं ?
अरोड़ा जी फिर एकबार ख़ुश हुए और उन्होंने फिरती डाक में संपादक को आश्वस्त किया कि वह कोई भी राशि स्वीकार करने को तैयार हैं, बल्कि बिना पारिश्रमिक भी प्रकाशित होने को तैयार हैं.
तीन हफ़्ते बाद संपादक जी का अगला पत्र आया, जिसमें अरोड़ा जी की उदारता की सराहना करते हुए कहा गया था कि उनका सारगर्भित निबंध शीघ्र ही उचित समय पर प्रकाशित होने जा रहा है.
अरोड़ा जी की ख़ुशी और बढ़ गई. उन्होंने फिरती डाक से अपना आभार व्यक्त करते हुए अनुरोध किया कि लेख छप जाने के बाद उन्हें उसकी एक प्रति भेजी जाय.
तीन हफ़्ते बाद संपादक जी का पत्र आया, जिसमें अरोड़ा जी को आश्वस्त किया गया था कि उनका सारगर्भित निबंध प्रकाशित होते ही उन्हें उसकी एक प्रति प्रेषित की जाएगी.
अरोड़ा जी और अधिक ख़ुश हुए. उनकी उत्सुकता बढ़ती गई, वह पहले बेताबी में, फिर लाचारी में, आख़िरकार लापरवाही में बदलती गई. लेख की प्रति नहीं आई. फिर वह इस वाकये को लगभग भूल गये.
साल भर बाद अरोड़ा जी भारत गये हुए थे. साथ में गोरी पत्नी, दो आधे गोरे बेटे, और ऊपर भारत की वासंती धूप. खैर परिवार को भारत दर्शन कराना था. वे कलकत्ता गये और तय किया कि ट्रेन से दिल्ली वापस जाते हुए रास्ते में सुबह बनारस में उतरकर सारनाथ, विश्वविद्यालय, विश्वनाथ मंदिर और गंगाजी का दर्शन करते शाम की ट्रेन से दिल्ली चला जाय. सारनाथ से वे रिक्शे में शहर की ओर जा रहे थे कि रास्ते में उन्हें अखबार का शानदार महल दिखा. अरोड़ा जी को तुरंत सारी बातें याद आ गई. उन्होंने रिक्शेवाले को रोकने के लिये कहा और सपरिवार वे अखबार के रिसेप्शननुमा कुर्सी-टेबुल के पास पहुंचे. संपादक जी का नाम लेते हुए उन्होंने कहा कि वह उनसे मिलना चाहते हैं. इस गोरे-काले परिवार को देखकर रिसेप्शनिस्ट-दरवान घबरा गया था, उसने अंदर से तीन-चार टीन की कुर्सियां मंगाई और उन्हें बैठाकर पर्ची लेकर अंदर गया. अंदर से चंडीपाठ का स्वर सुनाई दे रहा था. दो-तीन मिनट बाद उसने कहा कि संपादक जी शीघ्र आने वाले हैं, आप लोग यहां इंतज़ार कीजिये. उनके लिये चाय-बिस्कुट और बच्चों के लिये मिठाइयां मंगाई गई, बड़े बेटे ने खाने से इंकार कर दिया, छोटे ने खा लिया, उनकी मां शक भरी नज़र से उसे देखती रही.
एक्स्ट्रा पैसे का लालच दिखाकर अरोड़ा जी ने रिक्शेवाले से निपट लिया था. टीन की कुर्सी पर बैठकर वह दूर से आता चंडीपाठ सुन रहे थे. उनकी पत्नी भारतीय संस्कृति से अभिभूत होने की कोशिश कर रही थीं. लगभग बीस मिनट बाद उन्होंने अपने पति से जानना चाहा कि यहां का यह कार्यक्रम कितनी देर का है. अरोड़ा जी की दो बेताबियां एक-दूसरे से टकरा रही थीं. खैर, पांच मिनट बाद उन्होंने रिसेप्शनिस्ट-दरवान से कहा कि अब वे जाना चाहते हैं, संपादक जी से कह दिया जाय कि इस बार मिलना नहीं हो पाया. घबराकर रिसेप्शनिस्ट-दरवान ने कहा कि वह एक मिनट रुक जायं. वह भागे-भागे अंदर गया और एक ही मिनट में एक श्यामवर्ण मुनीमनुमा सज्जन उसके साथ बाहर आये, और अपना परिचय देते हुए अरोड़ा जी और उनके परिवार का स्वागत किया. यही संपादक जी थे. इससे पहले कि अरोड़ा जी कुछ कह पाते, संपादक जी उन्हें अंदर ले गये.
अंदर का दृश्य अत्यंत प्रभावशाली था, विशाल कक्ष में चालीस-पचास कर्मचारीनुमा लोग बैठे हुए थे. सामने सारी व्यवस्था के साथ ऊंचे स्वर में चंडीपाठ चल रहा था. उसके निकट एक काफ़ी अच्छे डील-डौल वाले और भारतीय हिसाब से अत्यंत गोरे व प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले सज्जन बैठे हुए थे, जिन्हें देखते ही लगता था कि वह इस आयोजन के केंद्र में हैं. उनके निकट एक अध्यापकनुमा और एक पंडितनुमा सज्जन बैठे हुए थे. अध्यापकनुमा सज्जन के चेहरे में गंभीरता छाई हुई थी, जबकि पंडितनुमा सज्जन अकारण ख़ुश दिख रहे थे. संपादक जी ने प्रभावशाली व्यक्तित्व की बांई ओर खाली जगह पर बैठते हुए अरोड़ा जी को भी अपने पास बिठाया, और उन्होंने प्रभावशाली व्यक्तित्व के कानों में धीरे से कुछ कहा, जिसे सुनकर वे अरोड़ा जी की ओर देखे और होठों पर एक अत्यंत स्मित हास्य की आभा के साथ उन्होंने अरोड़ा जी का सस्नेह स्वागत किया.
अपने संस्कारों से प्राप्त अनुभवों से अरोड़ा जी समझ चुके थे कि प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले यह सज्जन इस संस्था के सर्वोच्च पुरुष हैं और यह चंडीपाठ 6-7 मिनट में समाप्त होने वाला है. और ऐसा ही हुआ. उसके उपरांत संपादक जी ने अरोड़ा जी का परिचय करवाया. पता चला कि प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले सज्जन अखबार के मालिक हैं, उन्हें पापाजी कहा जाता है, और अध्यापक व पंडित जैसे दिखने वाले बाकी दोनों अखबार के अन्य वरिष्ठ संपादक हैं. पापाजी ने कुशल मंगल पूछते हुए अरोड़ा जी से दो-तीन दिन काशी नगरी में रुकने को कहा और उनके लिये रहने व गाड़ी की व्यवस्था करने का प्रस्ताव दिया. अरोड़ा जी ने अपनी असमर्थता व्यक्त की और कहा कि उन्हें शाम को दिल्ली की ट्रेन पकड़नी है. पापाजी इसके बाद चले गये. कर्मचारीनुमा लोग भी प्रसाद लेते हुए तितरबितर होने लगे.
संपादक जी बेहद ख़ुश थे. उन्होंने कहा, अब मालिक से आपका परिचय हो गया है, सारी समस्यायें दूर हो गईं. अरोड़ा जी को यह बात कुछ समझ में नहीं आई. हिम्मत करते हुए उन्होंने पूछा, समस्या कैसी थी ?
संपादक जी ने उन्हें समझाया : “देखिये, ऐसा है कि हम तो आपका लेख छापने जा रहे थे, लेकिन मालिक ने मना किया. उन्होंने कहा, देखो, इस व्यक्ति को हम जानते नहीं हैं, पता नहीं क्या लिख दिया होगा. अब कोई समस्या नहीं रह गई है. मालिक से आपका परिचय हो गया है. आप ठाट से लिखिये और हम तुरंत छाप देंगे.“
और अरोड़ा जी का यह लेख छप गया. कार्टर इस बीच दूसरी ख़बरों के साथ अखबारों के पन्ने सुशोभित कर रहे थे. अरोड़ा जी को अपने लेख की प्रति भी मिल गई. आज भी उसकी कटिंग उनके पास रखी है, भगवान रजनीश की कटिंग्स के साथ.

फ़ेस टु फ़ेस

मैंने देखा है कि बनारस के सभी रिक्शेवालों के बीच मां-बहन के आत्मीय संबंध हैं. और वे मौक़ा मिलते ही, या मौक़ा न मिलने पर भी उसकी घोषणा करते रहते हैं.




बातचीत हो रही थी और वह मुझे लगातार राय साहब - राय साहब कहे जा रहे थे. कुछ अचरज के साथ मैंने उनसे पूछा - राय साहब क्यों ?

रुककर मेरी ओर देखते हुए उन्होंने कहा - आप यन्ना राय हैं ना.





मेरी बेटी अक्सर ताने देती है : तुम अड़सठ वाले ! वह 1968 के छात्र आंदोलन की पीढ़ी की छद्म क्रांतिकारिता की ओर इशारा करती है. मैं कहता हूं : अड़सठ की हमारी पीढ़ी पहली पीढ़ी है, जिसने अपने बच्चों के अधिकारों को स्वीकारा है. वह इसे मान लेती है.




आशावाद और निराशावाद के बीच फ़र्क़ :

निराशावादी कहता है - इससे बदतर कुछ हो ही नहीं सकता.

आशावादी खिले हुए चेहरे के साथ कहता है - क्यों नहीं ? ज़माना बदलेगा.





मेरे बचपन के एक दोस्त ने मुझसे पूछा : तुम हमेशा इतनी हल्की-फ़ुल्की बातें क्यों करते रहते हो ?

दरअसल मेरे ज़ेहन में थोड़ी मायूस होने की रुझान है. उससे बचने के लिये चुहलबाज़ी के ज़रिये अपने ज़ेहन का दिल बहलाता रहता हूं.





दुनिया के मर्दों आगे बढ़ो ! औरतों से रसोईघर छीन लो ! तुम्हारे पास खोने को कुछ नहीं है - पाने को हैं सारे मसाले !




सोडोम और गोमोरा नाम की दो बस्तियां थीं. वहां एलजीबीटी कम्युनिटी के लोग रहते थे. बॉस को उन पर गुस्सा था. वह कहते थे कि ये अप्राकृतिक हैं, मिटा दो सालों को. उन्होंने माइकेल से कहा - माइकेल, बुलडोजर चलाकर ढहा दो इनकी बस्ती. लेकिन माइकेल का एक अपाहिज भतीजा भी वहीं रहता था, उसे और कहीं मकान नहीं मिल रहा था तो एलजीबीटी वालों ने कहा था - कोई बात नहीं, यहां आराम से रहो. तो उसने कहा - बॉस, ऐसा मत करो, वहां मेरा भतीजा भी रहता है, बेचारा अपाहिज है. बॉस को याद आ गया कि उसी की मार से वह अपाहिज हो गया था. तो उन्होंने कहा - ठीक है, किसी बहाने से उसे बाहर ले आओ. और बेदखली की नोटिस भी दे देना. हर काम कानून के मुताबिक होना चाहिये. कोई बचकर निकल न पावे.

बहाना बनाकर भतीजे को एकदिन बाहर बुलाया गया. दीवार पर नोटिस भी लगा दी गई. ऐसी नोटिस, जो किसी की समझ से बाहर थी : Mene mene tekel y parcim, यानी तौला और हल्का पाया. एलजीबीटी कम्युनिटी के लोग इसकी हंसी उड़ाने लगे.

अगले दिन चारों ओर से बुलडोज़र आये. सारी बस्तियां उजाड़ दी गई. एलजीबीटी कम्युनिटी के लोग मलबों के नीचे दब गये. बॉस ने साफ़-साफ़ कह दिया : मेरे इलाके में जो ऐसा अप्राकृतिक काम करेगा, उसे देख लिया जाएगा.





पिछले दिनों मुकम्मल तौर पर एनआरआई के तेवर के साथ जर्मन पत्नी को लेकर घूम रहा हूं. वह तो स्वाभाविक रूप से घूम रही थी, लेकिन मेरे चलन-बोलन-अंदाज़ की अदा चीख-चीखकर कह रही थी : देखो, मैं एनाराई हूं. गाईड-दलाल-हॉकरों के झुंड मंडरा रहे थे, उनको झेल रहा था, कभी उसका मज़ा ले रहा था, कभी झल्ला रहा था. एक ऐब्सर्ड से संवाद का सिलसिला चल रहा था...

जोधपुर में एक अजीब सा वाकया हुआ. भरे बाज़ार में मेरे ही जैसा एक जीव सामने से आता दिखा. मेरी ही तरह शॉर्टस् और टी शर्ट पहना हुआ, मेरी ही उम्र का, तोंद मुझसे कुछ ज़्यादा, जिसे वह मेरी ही तरह छिपाने की कोशिश कर रहा था. उसे देखकर भी लग रहा था कि उसके पॉकेट के रुपये के नोट यूरो या डॉलर के पेट से पैदा हुए हैं.

हम दोनों ने घने अमैत्रीपूर्ण भाव से एक-दूसरे को देखा. ऐसा लगा कि हम दोनों को लगा कि यह बिल्कुल स्वाभाविक है. फिर हम अपने-अपने रास्ते आगे बढ़ गये.





बहुतेरे मित्रों का कहना था कि मेरी जैसी प्रकृति है, उम्र बढ़ने पर नास्तिक से आध्यात्मिक बन जाउंगा. अभी तक उम्र बढ़ी नहीं है. लेकिन जो लोग आध्यात्मिकता की ओर झुकते हैं, उनके प्रति समझ बढ़ी है. फिर भी यह कतई समझ में नहीं आता कि आध्यात्मिकता के दावे के साथ कोई कैसे धर्म, रीति-रिवाज, ढकोसलों और आधुनिक हाई-फ़ाई गुरुओं के चक्कर में फंसता है.




ऑटोचालक से मैंने कहा - दीवाली का बाज़ार तो फ़ीका है...इतनी महंगाई...

उसने सोचते हुए जवाब दिया - नहीं साब, मेहनत करनेवाले और पैसा कमाने वाले अलग-अलग होते हैं...आजकल पैसा पैसे से कमाया जाता है.





परसों गुरुजी (प्रों. नामवर सिंह) के घर गया था. काफी लंबी बातचीत हुई. बात-बात में मैंने कहा - गुरुजी, आपके भाषण और लेखन के मिज़ाज के बीच मुझे एक बुनियादी अंतर दिखता है : अपने भाषणों में आप यूरोपीय एनलाइटनमेंट की निर्मम संतान लगते हैं, जबकि लेखन में मुझे एक वैष्णव मिज़ाज दिखता है.
गुरुजी हंसने लगे. फिर उन्होंने कहा - हां, ऐसा हो सकता है.





महाभारत के एक प्रसंग का उल्लेख करते हुए अभिनवगुप्त ने स्पष्ट किया है कि कैसे एक रस के माध्यम से दूसरे रस की सृष्टि की जा सकती है. कुरुक्षेत्र के युद्ध में निहायत अक्षत्रियोचित ढंग से सात्यकि (क्या यादव क्षत्रिय थे ?) अपने ही कुटुंब भुरिश्रवा का वध करते हैं, उनके देह को टुकड़ा-टुकड़ा करके काटते हैं. दिन ढलने के बाद जब युद्ध ख़त्म होता है, भुरिश्रवा की विधवा पत्नी वहां आती हैं, उन्हें कटा हुआ एक हाथ मिलता है और वह विलाप करते हुए वर्णन करती हैं कि कैसे यह हाथ उनके स्तनों और नितंबों का मर्दन करती थी. श्रृंगार रस का वर्णन, जो करुण रस पैदा करता है.




कुछ लोगों की बड़ी गंदी आदत होती है कि किसी के घर पहुंचते ही किताबों को टकटकी लगाकर देखने लगते हैं, और जाते समय एक-आधा किताब उधार ले जाते हैं.

मैं ऐसा कभी नहीं करता. कोई किताब पसंद आये तो उसे चुराने की कोशिश करता हूं.





कॉलेज के ज़माने में पैसे की कमी थी, तो तीन-चार दोस्तों ने मिलकर जाली नोट छापने का बिजनेस शुरू किया. गलती यह हुई, कि हमने चौदह रुपये के नोट छापे. शहर में इन्हें भुनाना मुश्किल था, तो यह तय हुआ कि गांव के लोग बेवकूफ़ होते हैं, वहां इन्हें भुनाया जाय. बस लेकर शहर से बाहर की रवाना हुआ और जब गोबर की महक के साथ खिली हुई प्रकृति दिखाई देने लगी, तो एक स्टॉप पर उतर गया. मेंढ़ पर पैदल जा रहा था कि उलटी तरफ़ से एक शख़्स को आते हुए देखा, शकल-सूरत से जो बिल्कुल देहाती लग रहा था. मैंने उनसे कहा - माफ़ कीजियेगा, एक अरज है. उसने कहा - हां-हां, कहिये. मैंने कहा - एक नोट के खुल्ले चाहिये थे. उसने कहा - कोई बात नहीं, कितने का नोट है ? मैंने शर्माते हुए चौदह रुपये का नोट निकाला. नोट देखकर उसने अपनी जेब में हाथ डाला और...
...
...
...
सात-सात के दो नोट वापस किये.





अपनी भाषा के बारे में सोच रहा था.

मातृभाषा बांगला है. बनारस में द्विभाषी (हिंदी और बांगला) के रूप में पला हूं. आंटीनिकेतन में नहीं पढ़ा, लेकिन बाद में अंग्रेज़ी सीखने की ललक पैदा हुई, बीए में अंग्रेज़ी साहित्य भी विषय था. 26 साल की उम्र में जर्मनी आ गया, जर्मन भाषा सीखने का मौका मिला. 32 साल तक हिंदी पत्रकारिता से कमाता रहा, लेकिन भाषा के भूगोल से बाहर. और साथ ही, कमोबेश चार भाषाओं में बात करता रहा. काम का एक बड़ा हिस्सा अनुवाद था, यांत्रिक अनुवाद के असर से भी मेरी भाषा अछूती नहीं रही. केंद्रीय हिंदी निदेशालय की पारिभाषिक शब्दावली का असर रहा है. हिंदुस्तानी से प्यार है, लेकिन अपनी पृष्ठभूमि के चलते जितना चाहता हूं, उससे कुछ अधिक ही तत्सम शब्दों का प्रयोग करता हूं.

मेरी भाषा शुद्ध नहीं, वर्णसंकर है. बेहतरी के लिये कोशिश करता रहता हूं. लेकिन कुल मिलाकर यह स्थिति मुझे पसंद है. भाषा संस्कृति की अभिव्यक्ति का सबसे महत्वपूर्ण साधन है (संगीत और चित्र के साथ-साथ). और मैं उनमें से हूं, जो संस्कृति को मौलिक रूप से वर्णसंकर मानते हैं.





एक जनाब घर में खटमल होने से बेहद परेशान थे. उन्होंने अपने होम्योपैथिक डॉक्टर से पूछा कि क्या किया जाय.

काफ़ी देर तक सोचने के बाद होम्योपैथिक डॉक्टर ने जवाब दिया : खटमल को पकड़ कर उसके ऊपर एक बूंद आर्सेनिक मदर टिंचर डाल दो. तुरंत मर जाएगा.





मेरी अंतरात्मा मेरी कमज़ोरियों को ब्लैकमेल कर रही है !

सुबह-सुबह (यानी नींद खुलने के बाद) अंतरात्मा ने कहा - "प्रतिज्ञा करो कि किचेन साफ़ करने से पहले सिगरेट नहीं पीओगे."

एफ़िडेबिट करने से पहले-पहले मेरी कमज़ोरियों के वकीलों न सलाह दी कि अगर प्रतिज्ञा करनी ही है तो यह करो कि किचेन साफ़ करने से पहले सिर्फ़ एक सिगरेट पीओगे.

रज़ामंदी हो गई. इस ख़ुशी में मैंने एक सिगरेट अपनी कमज़ोरियों के साथ बांटकर पी ली.

कितनी देर सिगरेट बिना रहा जाय. झक मारकर किचेन में हाथ लगाना पड़ा. दो घंटे लग गये. दिक्कत यह है कि मुझे पता चल रहा है कि किचेन कितना साफ़ हो चुका है. लेकिन बाहर से कोई आए, तो मेरी मेहनत को शायद ही पहचान पाएगा. ज़्यादा से ज़्यादा उसे सबकुछ नॉर्मल लगेगा.

लगता है कि कल मेरी अंतरात्मा फिर कोई तिकड़म करने वाली है.





समाज में परिवर्तन लाने वाली ताकत हमेशा अल्पमत में होती है. परिवर्तन लाते हुए जब वह बहुमत की ताकत बनती है, तो फिर परिवर्तन लाने वाली ताकत नहीं रह जाती है.




बहस कट्टर वामपंथियों और कट्टर हिंदुत्ववादियों/इस्लामी कट्टरपंथियों के बीच नहीं है, बल्कि व्यापक रूप से उदारवादियों और व्यापक रूप से अपने धर्म की एक तंग व्याख्या करने वालों के बीच है.
अंग्रेज़ी में एक शब्द है air sovereignty, आज के युद्धशास्त्र में जो अत्यंत महत्वपूर्ण है. ज़मीन पर किसी मुल्क का कब्ज़ा होता है, लेकिन आसमान पर अमरीका या नाटो का कब्ज़ा हो सकता है, जैसा कि हमने सर्बिया या लीबिया के मामले में देखा है. समाज को अगर देखा जाय तो हम अक्सर पाते हैं कि ज़मीन पर तो अनुदारवादियों का कब्ज़ा होता है, लेकिन विचारों के आसमान पर उदारवादियों का कब्ज़ा होता है. इस विसंगति के चलते अक्सर दोनों पक्षों में झल्लाहट देखी जा सकती है.
उदारवादी ख़ुश हो जाते हैं कि बातचीत में ज़्यादातर उनका पलड़ा भारी रहता है. लेकिन यह मत भूलिये कि झेंपने वाले या गाली-गलौज पर उतरकर अपनी कमज़ोरी दिखाने वाले अनुदारवादियों की ज़मीनी स्तर पर पकड़ कहीं अधिक मज़बूत है. यह उदारवादियों के लिये एक बड़ी चुनौती है.





आठवीं मंज़िल की बालकनी से सामने की ओर देख रहा हूं. दसमंज़िले मकान के चारों ओर थोड़ी सी ज़मीन है, जहां क़ायदे से घास का मैदान बनाया गया है. उसकी सरहद पर बाड़े से सटी हुई पेड़ों की एक पांत, चार-पांच willow के पेड़, लटकती शाखों और पत्तियों को देखकर सचमुच लगता है कि वे रो रहे हैं. डिक्शनरी में देखा, हिंदी में उन्हें बेदमजनूं कहते हैं. यह नाम कभी सुना नहीं था. सामने दो-तीन बीघे में फैली हुई बंजर ज़मीन है. वहां झुंड में छोटे-छोटे सफ़ेद और पीले फूल खिले हुए हैं - बेतरतीब. इसके अलावा जंगली लैवेंडर की झाड़ियां हैं. उनकी महक आठवीं मंज़िल तक नहीं आती हैं. यदा-कदा खरगोश दिखते हैं. और जब रात को पानी बरसता है तो शुरू हो जाता है मेंढकों का कोरस गान. मेंढकों के गायन से अगर रात को नींद टूटे, तो दिल ख़ुशी से भर जाता है. शरद का मौसम यूरोप में पतझड़ का मौसम होता है. पत्ते पहले लाल हो जाएंगे, फिर पीले - और फिर झर जाएंगे. कभी-कभी अंधड़ आएगा, उसका भी अपना मज़ा है. यह मौसम अपने-आप में बुरा नहीं होता है, लेकिन उसमें यह पैगाम छिपा रहता है कि अब दिन छोटे होते जाएंगे, जाड़े का मौसम आएगा, कई महीनों के लिये प्रकृति सो जाएगी. हां, जब बर्फ़ गिरने लगे तो उसका भी एक आकर्षण होता है, लेकिन कुल मिलाकर यूरोप का पतझड़ मायूस कर देने वाला मौसम है. पिछले दो सालों से जाड़े के दौरान भारत में रह रहा हूं. और यूरोप का पतझ़ड़ मुझे भाने लगा है.




हल्की बारिश हो रही है. और बारिश में चातकों का एक झुंड मस्ती से उड़ रहा है.

यूरोप के चातक भारत के मुकाबले कुछ छोटे होते हैं. मुझे याद है, बनारस में जब बारिश होती थी, चातक उड़ते थे, उल्लास के साथ चीखते थे. यूरोप में सभी धीरे-धीरे बोलते हैं, चातक भी चीखते नहीं, बस बुदबुदाते से लगते हैं. उनकी उड़ान में भी एक मस्ती है. चंद सेकंड पंख फड़फड़ाने के बाद वे बस आसमान में तैरते से लगते हैं.





हिंदी के लेखक उदय प्रकाश - जिनकी मित्रता का दावा करते हुए मैं कुछ बन-ठनकर पेश आता हूं - सिर्फ़ लिखते ही नहीं बल्कि पढ़ते भी हैं, और रोलां बार को तो उन्होंने लगभग चाट खाया है. पिछले महीनों में - यहां फ़ेसबुक में भी - वे विवादों में उलझे या उन्हें विवादों में लाया गया, गढ़े मुर्दे उखाड़े गये, उनकी आहत लेखकीय सत्ता भी सामने आई.
यह सब तो होता ही रहता है. लेकिन जो बात मुझे कुरेद रही थी वह यह है कि इस प्रकार के विवाद में लेखक हमेशा कमज़ोर पड़ जाता है. मैं सोच रहा था कि इसकी वजह क्या है ? और इसी सिलसिले में मुझे रोलां बार याद आ गये. लेखन का मतलब लिखना है और मेरा विश्वास है कि लेखक और लेखन के बारे में विचार का मतलब कहना है. मुझे याद नहीं आ रहा है, लेकिन कहीं रोलां बार ने speech और writing के बीच बुनियादी फ़र्क को रेखांकित किया है और उनकी राय में लेखन वहां शुरू हो जाता है, जहां बोलना असंभव हो जाता है.
उदय भाई, मुझे लगता है कि आप सचमुच लेखक हैं. शायद बोलना आपको कभी नहीं आएगा. और मुझे इस बात पर बेहद ख़ुशी है.





सिर्फ़ कालिदास की नायिका ही नहीं, लेखक भी आमतौर पर स्वाधिकारप्रमत्त होता है ; मेरी राय में यह ज़रूरी भी है.




औरतों और मर्दों के बीच बराबरी इसलिये नहीं कि वे हमसे बेहतर हैं, बल्कि इसलिये कि उन्हें भी वैसी बेवकूफ़ी करने का हक़ है, जैसी कि हम करते आ रहे हैं.




पहचान चाहे धार्मिक हो या जातीय (और कभी-कभी वैचारिक भी) - ऐसे लोग मुझे हमेशा बौखलाये हुए और कड़वेपन से भरे लगते हैं.




लोग पूछते हैं : क्या तुम्हें अपनी पत्नी से प्रेम है ?

मैं कहता हूं : बेशक. सिर्फ़ अपनी पत्नी से ही नहीं, बल्कि उसके भाई से भी, जिसका कभी जन्म ही नहीं हुआ. इतना प्रेम कि बातचीत के दौरान अपने हर वाक्य में कम से कम तीन बार उसे याद करता हूं.





मध्ववर्ग की विडंबना : खुद भले ही न बन सके, लेकिन बेटा (कभी-कभी बेटी भी) और ख़ासकर कुत्ता ज़रूर साहब होना चाहिये.




सत्तर के दशक का किस्सा है. मास्को के एक स्कूल में जीवविज्ञान पढ़ाया जा रहा था...वैज्ञानिक दृष्टि के अनुरूप. विषय था आनुवंशिकी और परिवेश. टीचर ने दोनों के बीच अंतर को स्पष्ट करते हुए कहा - देखो बच्चों, बोरिस का चेहरा उसके कामरेड पिता से मिलता-जुलता है. यह आनुवंशिकी का प्रभाव है. लेकिन साशा का चेहरा उसके पिता से नहीं मिलता है. उसका चेहरा कामरेड पार्टी सेक्रेटरी से मिलता-जुलता है. यह परिवेश का प्रभाव है.




निजी ज़िंदगी में दोस्त चुनने के बारे में मैं बहुत उदार नहीं हूं. सावधानी से उन्हें चुनता हूं और इस सिलसिले वैचारिकता का भी एक आयाम होता है (हालांकि बहुत कट्टर नहीं हूं). इसके विपरीत सार्वजनिक मंच पर मैं उन सभी लोगों के साथ विमर्श या विवाद के लिये तैयार रहता हूं, जिनके हाथों या दामन में ख़ून नहीं लगे हैं, और जो विमर्श की न्यूनतम संस्कृति के पालन के लिये तैयार हैं.




मुझे अक्सर मंच पर बोलने नहीं दिया गया (सांकेतिक रूप से). कभी पूरब में, तो कभी पश्चिम में. कभी कहा गया कि मैं लाईन से हटकर सोचता हूं, तो कभी कहा गया कि अब हमारा ज़माना आ गया है, तुम अब ख़ामोश रहो.
लेकिन कुल मिलाकर मैं बोलता रहा. कोई रोक नहीं पाया.





हिंदी में जब रचनात्मक लेखन, आलोचना व अध्ययन-अध्यापन का आधुनिक दौर शुरू हुआ, तभी से उसे एक विडंबना का सामना करना पड़ा : सारा विमर्श सर्टिफ़िकेट बांटने, नियुक्तियों व पुरस्कारों से नवाज़ने के इर्दगिर्द चलता रहा है. विषय व मुद्दों पर बातचीत होती रही है, लेकिन उसे कभी भी वरीयता नहीं दी गई. इसलिये आलोचना व्यक्तिकेंद्रिकता से उबर नहीं पाई. आज भी वही स्थिति कायम है.




जब सारे तर्क नाकाम हो जाते हैं, फिर इस तर्क का सहारा लेना पड़ता है - "आप तो ऐसा कहेंगे ही"




ज्ञान के मामले में अतीत में वापसी का तर्क यह है कि आरंभ में ज्ञान था और धीरे-धीरे अज्ञान का प्रसार होता गया और अंततः हम आज की स्थिति में पहुंच गये.




अगर मुझसे कोई पूछे, ‘पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है?’, तो मेरा जवाब होगा : वही, जो मैं कह रहा हूं.




देहरी में उदय प्रकाश के बारे में वीरेंद्र यादव का लेख पढ़ने को मिला. इस लेख में कम से कम दो विंदू ऐसे हैं, जो मेरी राय में साहित्यिक-वैचारिक विमर्श के दायरे में आते हैं : पहला हिंदी के संदर्भ में है. मुझे लगता है कि उदय जी का हिंदी के प्रति नकारात्मक रुख हाशिये की एक स्थिति से है, बर्चस्व की स्थिति से नहीं. हिंदी की इस समस्या को रेखांकित करने वाले पहले व्यक्ति उदय जी नहीं हैं, भारतेंदू ने भी शायद किसी पत्र में इशारा किया था कि कविता के लिये उन्हें खड़ी बोली के दायरे से बाहर जाना पड़ता है (इस जानकारी का आधार नामवर जी के साथ एक बातचीत है, कोई दूसरा स्रोत मेरे पास नहीं है). उदय जी के रुख पर बहस हो सकती है, लेकिन में उसे कम से कम जायज़ मानता हूं.
दूसरा सवाल है उदय जी का वैचारिक अवस्थान. हो सकता है कि वह मेरा या वीरेंद्र जी का अवस्थान न हो, लेकिन मैं उसे भी कम से कम जायज़ समझता हूं. मैं यह भी नहीं मानता कि इस अवस्थान की वजह से वह सत्ता प्रतिष्ठान के विरोध का हक़ खो चुके हैं. मैं उनके अवस्थान को आवश्यक समझता हूं, जिसके चलते हिंदी जगत की वैचारिक बहुलता में एक रंग जुड़ता है. साथ ही, मेरी राय में यह एक प्रतिक्रियावादी अवस्थान नहीं है.
एक और संशय मेरे मन में है : वीरेंद्र जी जिसे अमरीका में मान्यता की ललक कह रहे हैं, वह एक लेखक के लिये क्योंकर गलत होने लगी ? मुझे यह मानने में भी दिक्कत है कि यह मान्यता वर्चस्व की ओर से मान्यता है. पश्चिम के जगत को समग्र रूप से वर्चस्व का जगत समझ लेना हमें एक ऐसे कोने में ले जाएगा, जहां आस-पास के लोगों को देखकर हमें घबराहट होने लगेगी. कम से कम मुझे तो होगी ही.





पूर्वी जर्मनी में एक संगीतकार हुआ करते थे, रुडोल्फ़ वागनर रेगेनी. वह बड़े प्यारे-प्यारे गंदे चुटकुले सुनाया करते थे, और ब्रेष्त को ऐसे चुटकुले बहुत पसंद थे. एकबार दोनों की मुलाकात हुई और ब्रेष्त ने कहा - कुछ छोड़ो भई. रेगेनी ने यह चुटकुला सुनाया -
एकबार एक क्वांरी अधेड़ महिला को जीवन में पहली बार एक युवक के साथ संसर्ग का अवसर मिला. लेकिन एक मिनट भी नहीं बिता था कि वह घबरा गई. महिला ने युवक से कहा - देखो यंगमैन, पहले तय कर लो कि तुम्हें अंदर जाना है या बाहर. इस लगातार झिकझिक से मैं तो बौरा जा रही हूं.
चुटकुला सुनकर हंसने के बदले ब्रेष्त संजीदा हो गए. एक मिनट की ख़ामोशी के बाद उन्होंने कहा - हां, यही है जर्मन पेटिबुर्जोआ की आदत. उसे प्रक्रिया नहीं, स्थिति चाहिये.





मेरी बेटी आधी जर्मन है, आधी हिंदुस्तानी. दामाद गोरा अंग्रेज़ है. दोनों बर्लिन में एक फ़्लैट में रहते हैं. बगल के फ़्लैट का पड़ोसी मेरे दामाद से जर्मन में बात करता है, और मेरी बेटी से अंग्रेज़ी में.




वह लड़की एक कम्युनिस्ट परिवार की थी, पिता बहुत बड़े वकील थे, और वे ब्राह्मण थे. लड़की भी पार्टी में सक्रिय हो चुकी थी, और उसका परिचय एक मुसलमान कॉमरेड से हुआ. दोनों एक दूसरे को चाहने लगे, और शादी करने की ठानी. परिवार बिल्कुल ख़िलाफ़, और पार्टी का प्रादेशिक नेतृत्व भी. लेकिन नौजवान कॉमरेड इस युवा जोड़े का साथ दे रहे थे - प्रादेशिक और राष्ट्रीय हेडक्वार्टर में भी. एक बार प्रदेश के सचिव दिल्ली आये हुए थे और उन्होंने हेडक्वार्टर के एक नौजवान को बुलाकर डांटा और कहा - तुमलोग भूल जाते हो कि उसकी चार बहनों की भी शादी करनी है. नौजवान कॉमरेड ने कहा - कामरेड, वो सिर्फ़ खुद आज़ाद नहीं हो रही है, अपनी बहनों को भी लिबरेट कर रही है.

खैर, शादी हो गई. मज़े की बात है कि बाद में बाकी चार बहनों की शादी भी दूसरी जातियों में हुई. किसी ने मां-बाप की मर्ज़ी से शादी नहीं की.





मैं असली गधा हूं ; धोबी मुझे हर रोज़ पीटता है. यह कहकर गधे ने गधी को दुलत्तियां झाड़ दी.






मेरा दावा था कि मैं चाहता हूं कि जिनकी भाषा नहीं हैं, वे बोलना शुरू करें. अरे, वे तो मुझीको गाली देने लगे !(यह शेक्सपीयर से चुराया हुआ माल है, ऐसी चोरी जायज़ है)




लगभग पंद्रह साल पहले की बात है. शाम को कुछ लेखकों व अन्य मित्रों के साथ वारुणीवरण का दौर चल रहा था. जैसा कि आम तौर पर होता है और मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है, सब के सब मर्द और लगभग सभी अकेले जीने वाले. तो प्यार के गंभीर मुद्दे पर बातचीत रुकी. दौर में मौजूद काफ़ी ऊंचे सेमेस्टर वाले श्रद्धेय औरत विशेषज्ञ लेखक-संपादक ने कहना शुरू किया - देखो, प्यार में ऐसा होता है कि...अपने लड़कपन में उन्हें टोकते हुए मैंने कहा - आप क्या प्यार के बारे में बात कर रहे हैं, आपके तो दांत भी गिर चुके हैं ? आगराई अंदाज़ में झल्लाकर उन्होंने कहा - कमाल करते हो यार ! तो क्या हुआ ? प्यार क्या कोई चबाने की चीज़ है ?

बात में दम है. लेकिन फिर भी बता दूं : अभी तक मेरे सारे दांत साबूत हैं. लेकिन अब ख़ुश होता हूं कि दांत साबूत हैं. उन दिनों तो दांतों के बारे में सोचता भी नहीं था.





सोवियत संघ में वैज्ञानिकों ने एक मशीन का ईजाद किया था, जिसकी मदद से मरे हुए लोगों के साथ बात की जा सकती थी. ज़ाहिर है कि सबसे पहले पोलिट ब्युरों के सदस्य सामुहिक रूप से इसका इस्तेमाल करने वाले थे. बैठक में तय हुआ कि लेनिन से बात की जाय. सवाल भी तय किया गया. उन्होंने पूछा - कम्युनिज़्म से हम कितने दूर हैं. लेनिन ने कहा - तीन किलोमीटर. इतना कहने के बाद ही मशीन बिगड़ गई. अब पोलिटब्युरो के कॉमरेड परेशान थे कि तीन किलोमीटर का मतलब क्या है ? काफ़ी माथापच्ची के बाद वे इस नतीजे पर पहुंचे कि देश के सबसे बड़ा मार्क्सवादी सिद्धांतकार, जो साइबिरिया के श्रम शिविर में हैं, उससे पूछा जाय. ऐसा ही किया गया. उस बुड्ढे ने मुस्कराकर कहा - लेनिन की रचनावली के 30वें खण्ड में पृष्ठ 243 पर 16वीं लाईन में इसका जवाब है. किताब खोल कर देखा गया. वहां लिखा हुआ था - हर पार्टी कांग्रेस कम्युनिज़्म की ओर एक क़दम है.




मुझे लगता है कि हिंदी मे सारी भाषाई बहस उसकी सरकारी मान्यता तक सिमट गई है. जहां तक साहित्य जगत की बात है तो पुरस्कार के प्रति मोहग्रस्तता के मामले में भी वह अनोखा है. हो सकता है कि बांगला या दूसरी भाषाओं के साहित्य के मठाधीश अपनी भाषा की किसी पुस्तक या पुस्तकों के लिये लड़ते हैं, लेकिन अपनी भाषा के दायरे में हिंदी जैसी पुरस्कार केंद्रित राजनीति मैंने नहीं देखी है. संस्थान रहेंगे तो उनकी राजनीति में उठापटक भी रहेगी, लेकिन उसके दायरे से बाहर साहित्य की ज़िंदगी जारी है. अफ़सोस कि हिंदी में यह बात नहीं दिखाई देती. यहां लेखकों के बीच आपसी संबंध सिर्फ़ खेमेबाज़ी ही नहीं, बल्कि पारस्परिक शंका के द्वारा चरित्रात्मक हैं.
अगर हिंदी जगत में कोई अपवाद है तो वह युवा लेखन के क्षेत्र में है. प्रतिभावान या प्रतिभा की संभावना वाले युवा कवि आपस में जुड़ रहे हैं, संस्थानों के दायरे से बाहर वे सन्नाटे को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं. उनमें से कुछ एक के साथ संपर्क का मौका मिला है और मैंने पाया कि हिंदी को सरकारी मान्यता जैसे मुद्दों की वे कोई ख़ास परवाह नहीं करते. अफ़सोस कि इनमें से कुछ जब प्रतिष्ठित हो जाएंगे, तो काफ़ी मुमकिन है कि वे भी हिंदी जगत के मियादी बुखार के शिकार हो जाएंगे.





जो दलित नहीं, उसे दलित की बात करने का हक़ नहीं है. जो औरत नहीं, उसे औरत की बात करने का हक़ नहीं है. आदिवासी नहीं, समलैंगिक नहीं, शारीरिक या मानसिक चुनौती वाला नहीं, उन्हें इनकी बात करने का हक़ नहीं है.
यानी इन सबकी बात करने के लिये एक ऐसी औरत चाहिये, जिसके मां-बाप में से एक आदिवासी और एक दलित हो, वह इस्लाम कबूल कर चुकी हो, लेसबियन हो, शारीरिक और मानसिक चुनौती हो. फिर भी कुछ खामियां रह जाएंगी, लेकिन मजबूरी में मान लिया जाएगा.





दामादों से सभी परेशान रहते हैं...मेरा दामाद भी मेरी कई किताबें चुरा चुका है...इकलौता दामाद है, इसलिये कुछ कह नहीं पाता...वह कहता है कि यह संपत्ति के अधिकार के ख़िलाफ़ विद्रोह है.वैसे ईमानदारी का तकाज़ा है कि यह भी बता दूं कि अक्सर ज़रूरत पड़ने पर जब अंग्रेज़ी या जर्मन की कोई किताब नहीं मिलती है तो तुरंत सोचता हूं कि दामाद ले गया होगा. कभी-कभी बाद में मिल भी जाती है. फिर इस नतीजे पर पहुंचता हूं कि ठीक है, यह किताब नहीं, तो ज़रूर कोई दूसरी किताब चुरायी होगी.

 किताब की चोरी से कहीं बड़ी समस्या किताब उधार लेने की है. उधार लेने के लिये और फिर वापस न लौटाने के लिये तर्कों में ऊंचे दर्जे की सृजनात्मकता झलकती है. इन तर्कों के सामने हथियार डालने का दर्द किताब खोने के दर्द से ज़्यादा तकलीफ़देह है. घाघ से घाघ दोस्त ऐसी मासुमियत दिखाने लगते हैं कि शर्म के मारे पानी-पानी हो जाना पड़ता है. 

पुत्र या पुत्र की तरह कानून झाड़ने वाला दामाद (son-in-law) जब मित्र की तरह बेहुदगी पर उतर आता है तो समझ लीजिये कि अब जंगल में जाने का वक्त आ गया है. मैं तो शहर छोड़कर जंगल जाने को तैयार हूं, लेकिन सोचता हूं कि वहां ख़ूंखार जानवरों की कमी खलेगी. इसलिये बस बुकशेल्फ़ में उस खाली जगह की ओर देखता हूं, दिल पर ऐसा सांप लोट जाता है कि लगता है कि शेषनाग की शैया पर लेटा हूं...अब आप मेरे दारुभूत होने का कारण समझ रहे होंगे.




एक दहशत भरा लफ़्ज़ है : तुम्हारे बिना मैं जी नहीं सकता/सकती.




मेरे एक संस्कृतिनिष्ठ मित्र का दिल एक जर्मन युवती पर आ गया था. युवती आज़ाद खयालों की थी और मेरा मित्र उसे कमोबेश पसंद था. तो मित्र महोदय ने एकदिन उससे कहा कि वह उससे शादी करना चाहते हैं. युवती ने कहा - देखो, मैं सबकुछ करने को तैयार हूं, लेकिन अभी शादी नहीं करूंगी. मेरे मित्र ने जवाब दिया - मुझे सबकुछ नहीं करना है, सिर्फ़ शादी करनी है.
(ज़ाहिर है कि अपने मित्र की खिंचाई के लिये हमने यह कहानी गढ़ी थी. लेकिन दिल आने का मसला जेनुइन था)





आप्रवासी जीवन आसान नहीं होता है. उसकी सबसे बड़ी ख़ासियत होती है कि आप अजनबी हो जाते हैं - अजनबी के तौर पर आपको देखा जाता है, आप खुद अपने-आपको अजनबी के तौर पर देखने लगते हैं, सिर्फ़ प्रवास के देश में ही नहीं, बल्कि जिस देश से आप आये हैं वहां भी. इसका एक नतीजा होता है अवसाद. लगभग सारे आप्रवासी अवसाद के शिकार होते हैं, उम्र बढ़ने के साथ-साथ यह अवसाद बढ़ने लगता है.

आप्रवासियों के बीच मूलतः दो सांस्कृतिक रुझानें देखने को मिलती हैं : एक छोटा सा अल्पमत अपने क्षितिज को व्यापक बनाने की कोशिश करता है, संस्कृति की भौगोलिक सीमाओं से परे तक जीने की कोशिश करता है, उन्हें लांघने की कोशिश करता है, पाटने की कोशिश करता है. लेकिन बहुमत अपने मूल देश, उसकी संस्कृति की अपनी समझ के साथ जुड़े रहने की कोशिश करता है, अपने बच्चों को भी उसी रंग में ढालने की कोशिश करता है, विफल रहता है, और इस विफलता में कुढ़ता रहता है. पीढ़ियों के बीच द्वंद्व एक नये सांस्कृतिक आयाम के साथ सामने आता है, उसके अस्तित्व का संकट बन जाता है. मातृ देश और उसकी संस्कृति की तस्वीर भी अतीत की एक तस्वीर होती है - दशकों पहले जब वह देश छोड़कर आया था उस समय की तस्वीर. इस बीच वह तस्वीर भी काफ़ी बदल चुकी होती है. इस प्रकार वह न घर का रह जाता है, न घाट का.

कहीं पढ़ा था कि समाजशास्त्रीय अध्ययनों से एक रोचक तथ्य का पता चला है : वैश्विक दृष्टि वाला उदारवादी आप्रवासी अल्पमत तुलनात्मक रूप से अवसाद से अधिक ग्रस्त होता है. इसके विपरीत अपनी मूल संस्कृति के अतीत से मोहग्रस्त आप्रवासी के सामने एक स्पष्ट मिशन होता है, अपनी तथाकथित संस्कृति की रक्षा के लिये तथाकथित संघर्ष में उसे अपने जीवन का तात्पर्य दिखता है. यह मोहग्रस्तता उसे अवसाद से उबरने में मदद करती है.

छब्बीस साल की उम्र के बाद जर्मनी आया था और अब पिछले 34 साल से इस देश में हूं. तीन-चार साल पहले एक साक्षात्कार में मुझसे पूछा गया था : आप कहां अपने घर जैसा महसूस करते हैं ? भारत में या जर्मनी में ? मेरा जवाब था : "न यहां, न वहां. मेरा एक तीसरा ठौर है, जो इन दोनों से अलग है, इन दोनों से दूर है, इन दोनों से जुड़ा हुआ है. मैं दूरी और जुड़ाव के इस अहसास के साथ जीता हूं."

शायद ये लफ़़्ज़ बनावटी थे ? हो सकता है. फिर तो ग़ालिब का यह शेर भी थोड़ा सा बनावटी है :

वा कर दिये हैं शौक़ ने बन्द-ए-नकाब-ए-हुस्न
ग़ैर अज़ निगाह अब कोई हाइल नहीं रहा





एक परम नास्तिक गोरे को एकबार अफ़्रीका में नरखादक कबायलियों ने पकड़ लिया. हंडिया में पानी खौल रहा था और उसे मुखिया के सामने ले आया गया. ऊपर की ओर देखते हुए उस गोरे ने कहा, भगवान, अगर तुम हो तो मुझे बचाकर इसे साबित करने का आख़िरी मौका है. ऊपर से आवाज़ आई - मुखिया को कसकर एक चांटा जड़ दो. गोरे ने वैसा ही किया. आगबबूला होकर मुखिया ने कहा - इसका एक-एक अंग काटकर खौलते पानी में डालो...घबराकर गोरे ने ऊपर देखते हुए कहा - यह क्या हुआ भगवान ?

ऊपर से आवाज़ आई : क्यों बेटा, अब पता चला कि मैं हूं या नहीं ?

यानी अगर वो है फिर भी निश्चित नहीं है कि वो शरीफ़ ही होगा.




यह एक पुरानी समस्या है : दृष्टिकोण में दृष्टि कम और कोण ज़्यादा !



प्रतिबद्धता के सिलसिले में अक्सर पेड़ के मुहावरे का इस्तेमाल किया जाता है. आपकी प्रतिबद्धता ज़मीन से है, जहां आपकी जड़ें गहराई तक होनी चाहिये.
मेरा मानना है कि प्रतिबद्धता सिर्फ़ ज़मीन से नहीं, आसमान से भी होनी चाहिये. अपनी जड़ों की मदद से ज़मीन से खुराक लेकर आपको अपनी शाखा-प्रशाखायें आसमान की ओर फैलानी है. तभी किसी पेड़ की सार्थकता है.

मेरी उम्मीदें

मेरी उम्मीदों को
तुम्हारी परवाह नहीं
वे तो जीती रहती हैं
क्योंकि उन्हें जीने की चाह है
जीने की आदत है
और वे तब भी ज़िंदा रहेंगी
जब तुम्हारें काले हाथ
उनका गला घोंटने के लिये आगे बढ़ेंगे
तब भी ज़िंदा रहेंगी
जब तुम्हारे सारे मंसूबे
खाक़ होकर याददाश्त बन जाएंगे

और जब तक वे ज़िंदा हैं
तुम्हें परेशान करती रहेंगी
बनी रहेंगी
मेरे ज़िंदा होने की वजह.

31 मई, 2014

कभी-कभी
लोग-बाग रहने पर भी
शहर खाली-खाली सा लगता है.

जानता हूं,
बात ऐसी नहीं है -
सब अपनी फ़िक्र में बेफ़िक्र हैं
और आप अगर जनाब
अपना भरा हुआ उफ़नता दिल
बांटने को बेताब हैं
यह आपकी परेशानी है.

ग़लती आपकी नहीं,
मौसम ही कुछ बेईमान है.







आते-जाते रहते हैं
अपने आप
दिन और रात
चुपचाप
फिर भी रोता हुआ
गाता रहता है
विद्यापति दिल -
'कइसे घुमाइल'.

निर्वैयक्तिक

मैं अपने बगल में खड़ा हूं
खुद को देख रहा हूं
- इस शख़्स के दिमाग में
दुनिया की
या कम से कम उसके एक हिस्से की
तमाम बातें
उथलपुथल मचा रही हैं !
पर देखो तो सही,
इन बातों से उसका
कुछ नहीं आता-जाता.

वह अपने बगल में खड़ा है.

Dienstag, 3. Juni 2014

चरैवति





 
1- आदत
 
सुबह अभी हुई नहीं
परिंदे चहचहाते नहीं
टूटी नींद आंखों में लिये हुए
खिड़की के पास पहुंचता हूं
बाहर झांककर कुछ खोजने की कोशिश करता हूं
पास कोई भी न था
जिसे मेरा बर्ताव अजीब लगता
फिर भी शर्मा जाता हूं.

जीने की आदत पड़ जाती है
आदतों के साथ
जो हर गोल-मोल चीज़ को
चौकोर बना देती है
क़िताबों के चार कोने
चार कोने अलमारी के
पलंग के पास छोटा सा गलीचा
उसके भी चार कोने
और चार कोने का पलंग
जिस पर लेटकर
चार कोने की योनि के बारे में सोचते हुए
मैं सो जाता हूं
सपने आते हैं
चौकोने सपने
लेकिन आमतौर पर
उनमें यौनांग नहीं होते.

आदत का तकाज़ा है
आदत डाली जाय
आदत से हटकर कुछ करने की
और मैं
टूटी नींद आंखों में लिये हुए
खिड़की के पास पहुंच जाता हूं.

माफ़ करना दोस्तों,
कोई चारा नहीं इसके सिवा
आदत से लाचार हूं
पास भले ही कोई न हो
शर्मा जाता हूं
शर्म भी आदत है
कोई चारा नहीं इसके सिवा
आदत से लाचार हूं.


2 – ग़लती
 
ग़लतियां मुझे ख़ूबसूरत बनाती हैं
ग़लतियां ख़ूबसूरत हैं
ग़लतियां मेरी आदत हैं.

ग़लत रास्ते पर निकल पड़ा
और वो मेरा रास्ता बन गया
ग़लत सपने देखता रहा
और सपने बनते गये
कुछ एक टूटे
कुछ एक याद नहीं रहे
ग़लत फ़ैसले -
ग़लत क़दम -
ग़लत बातें -
ग़लत तरीक़े -
ग़लत तहज़ीब -
ग़लत सोहबत -
कुछ यूं ही बीता मेरा वक़्त
और मेरी ज़िंदगी बनती गई
या जिसे मैंने ज़िंदगी बनाई.

यह कहना ग़लत है
हर मोड़ पर दो रास्ते मिलते हैं,
एक पर चलना लाज़मी होता है.
चल पड़ने के बाद ही पता चलता है
आप किस रास्ते पर हो -
छूटे हुए रास्तों की
याद भर रह जाती है
या नहीं भी रह जाती.

रास्ता मुझसे बहुत छूट चुके
रास्ता नहीं छूटा.

रास्ते आये ग़लती से
शायद वह मेरी
शायद उनकी ग़लती थी
कुछ यूं ही बीता मेरा वक़्त
कुछ यूं ही उनका भी
और कुछ दोनों का.

जो कुछ हुआ मुझे उसका अफ़सोस है -
जो नहीं हुआ उसका अफ़सोस है -
और मैं ख़ुश हूं.





3 - ख़ुशी

ख़ुशी मेरे साथ आंख-मिचौनी खेलती है
कभी मैं उसके पीछे दौड़ता हूं
कभी वह मेरे पीछे दौड़ती है
कभी वह मेरे साथ होती है -
कभी उसकी याद –
कभी उसकी उम्मीद –
मैं उसे नहीं भूलता
वह मुझे नहीं भूलती.

कभी मैं उदास बैठा होता हूं
उसके बिना
कभी ख़ुशी उदास होती है
मेरे बिना

ख़ुशी कभी आने का वादा नहीं करती
वह आती है
ख़ुशी कभी जाने की धमकी नहीं देती
बस यूं ही चली जाती है

ख़ुशी जब पास होती है
उसका अहसास नहीं होता
सिर्फ़ पता चलता है
वह थी
सिर्फ़ पता चलता है
वह आ रही है.

हां,
मुझे उसका इंतज़ार रहता है.
लेकिन क्या उसे मेरा भी ?
मैं ख़ुश होता हूं जब वह आती है.
क्या ख़ुशी भी ख़ुश होती है ?